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Chapter 12 – भक्तियोग Shloka-3-4

Chapter-12_1.3.4

SHLOKA

ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्।।12.3।।
संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः।।12.4।।

PADACHHED

ये, तु_अक्षरम्_अनिर्देश्यम्_अव्यक्तम्, पर्युपासते,
सर्वत्रगम्_अचिन्त्यम्‌, च, कूटस्थम्_अचलम्‌, ध्रुवम्‌ ॥ ३ ॥
सन्नियम्य_इन्द्रिय-ग्रामम्‌, सर्वत्र, सम-बुद्धय:,
ते, प्राप्नुवन्ति, माम्_एव, सर्व-भूत-हिते, रता: ॥ ४ ॥

ANAVYA

तु ये इन्द्रियग्रामं सन्नियम्य अचिन्त्यं सर्वत्रगम्‌ अनिर्देश्यं च कूटस्थं ध्रुवम्‌ अचलम्‌ अव्यक्तम्
अक्षरं पर्युपासते ते सर्वभूतहिते रता: (च) सर्वत्र समबुद्धय: माम्‌ एव प्राप्नुवन्ति ।

ANAVYA-INLINE-GLOSS

तु [परंतु], ये [जो ((पुरुष))], इन्द्रियग्रामम् [इंद्रियों के समुदाय को], सन्नियम्य [भली प्रकार से वश में करके], अचिन्त्यम् [मन-बुद्धि से परे,], सर्वत्रगम् [सर्वव्यापी,], अनिर्देश्यम् [अकथनीय स्वरूप], च [और], कूटस्थम् [सदा एकरस रहने वाले,], ध्रुवम् [नित्य,], अचलम् [अचल,], अव्यक्तम् [निराकार,],
अक्षरम् [अविनाशी सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को], पर्युपासते [निरन्तर ((एकीभाव से ध्यान करते हुए)) भजते हैं,], ते [वे], सर्वभूतहिते [सम्पूर्ण भूतों के हित में], रता: (च) [संलग्न (और)], सर्वत्र [सब में], समबुद्धय: [समान भाव वाले ((योगी))], माम् [मुझको], एव [ही], प्राप्नुवन्ति [प्राप्त होते है।],

ANUVAAD

परंतु जो ((पुरुष)) इंद्रियों के समुदाय को भली प्रकार से वश में करके मन-बुद्धि से परे, सर्वव्यापी, अकथनीय स्वरूप और सदा एकरस रहने वाले, नित्य, अचल, निराकार,
अविनाशी सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को निरन्तर ((एकीभाव से ध्यान करते हुए)) भजते हैं, वे सम्पूर्ण भूतों के हित में संलग्न (और) सब में समान भाव वाले ((योगी)) मुझको ही प्राप्त होते है।

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