Chapter 9 – राजविद्याराजगुह्ययोग Shloka-31

Chapter-9_1.31

SHLOKA

क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति।।9.31।।

PADACHHED

क्षिप्रम्, भवति, धर्मात्मा, शश्वत्_शान्तिम्‌, निगच्छति,
कौन्तेय, प्रति_जानीहि, न, मे, भक्त:, प्रणश्यति ॥ ३१ ॥

ANAVYA

(सः) क्षिप्रं धर्मात्मा भवति (च) शश्वत्‌ शान्तिं निगच्छति।
(हे) कौन्तेय! (त्वम्) प्रति जानीहि (यत्) मे भक्त: न प्रणश्यति।

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{(सः) [वह]}, क्षिप्रम् [शीघ्र ही], धर्मात्मा [धर्मात्मा], भवति (च) [हो जाता है (और)], शश्वत् [सदा रहने वाली], शान्तिम् [परमशान्ति को], निगच्छति [प्राप्त होता है।],
(हे) कौन्तेय! (त्वम्) [हे अर्जुन! (तुम)], प्रति [निश्चयपूर्वक ((सत्य))], जानीहि [जानो ((कि))], मे [मेरा], भक्त: [भक्त], न प्रणश्यति [नष्ट नहीं होता।],

ANUVAAD

(वह) शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है (और) सदा रहने वाली परमशान्ति को प्राप्त होता है।
हे अर्जुन! (तुम) निश्चयपूर्वक ((सत्य)) जानो ((कि)) मेरा भक्त नष्ट नहीं होता।

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