Chapter 9 – राजविद्याराजगुह्ययोग Shloka-30

Chapter-9_1.30

SHLOKA

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः।।9.30।।

PADACHHED

अपि, चेत्_सुदुराचार:, भजते, माम्_अनन्य-भाक्,
साधु:_एव, स:, मन्तव्य:, सम्यक्_व्यवसित:, हि, स: ॥ ३० ॥

ANAVYA

चेत् सुदुराचार: अपि अनन्यभाक् मां भजते (तर्हि) स: साधु: एव मन्तव्य:,
हि स: सम्यक्‌ व्यवसित:।

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चेत् [यदि ((कोई))], सुदुराचार: [अतिशय दुराचारी], अपि [भी], अनन्यभाक् [अनन्यभाव से ((मेरा भक्त होकर))], माम् [मुझको], भजते (तर्हि) [भजता है (तो)], स: [वह], साधु: [साधु], एव [ही], मन्तव्य: [मानने योग्य है;],
हि [क्योंकि], स: [वह], सम्यक् [यथार्थ], व्यवसित: [निश्चय वाला है अर्थात् उसने भलीभाँति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वर के भजन के समान अन्य कुछ भी नहीं है।],

ANUVAAD

यदि ((कोई)) अतिशय दुराचारी भी अनन्यभाव से ((मेरा भक्त होकर)) मुझको भजता है (तो) वह साधु ही मानने योग्य है;
क्योंकि वह यथार्थ निश्चयवाला है अर्थात् उसने भलीभाँति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वर के भजन के समान अन्य कुछ भी नहीं है।

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