SHLOKA
यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते।।3.7।।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते।।3.7।।
PADACHHED
य:_तु_इन्द्रियाणि, मनसा, नियम्य_आरभते_अर्जुन,
कर्मेन्द्रियै: , कर्म-योगम्_असक्त:, स:, विशिष्यते ॥ ७ ॥
कर्मेन्द्रियै: , कर्म-योगम्_असक्त:, स:, विशिष्यते ॥ ७ ॥
ANAVYA
तु (हे) अर्जुन! य: (पुरुषः) मनसा इन्द्रियाणि नियम्य
असक्त: कर्मेन्द्रियै: कर्मयोगम् आरभते, स: विशिष्यते।
असक्त: कर्मेन्द्रियै: कर्मयोगम् आरभते, स: विशिष्यते।
ANAVYA-INLINE-GLOSS
तु [किंतु], अर्जुन [हे अर्जुन!], य: [जो (पुरुष)], मनसा [मन के द्वारा], इन्द्रियाणि [इन्द्रियों को], नियम्य [वश में करके],
असक्त: [अनासक्त हुआ], कर्मेन्द्रियै: [((समस्त)) इन्द्रियों के द्वारा], कर्मयोगम् [कर्मयोग का], आरभते [आचरण करता है,], स: [वही], विशिष्यते [श्रेष्ठ है।],
असक्त: [अनासक्त हुआ], कर्मेन्द्रियै: [((समस्त)) इन्द्रियों के द्वारा], कर्मयोगम् [कर्मयोग का], आरभते [आचरण करता है,], स: [वही], विशिष्यते [श्रेष्ठ है।],
ANUVAAD
किंतु हे अर्जुन! जो (पुरुष) मन के द्वारा इन्द्रियों को वश में करके
अनासक्त हुआ ((समस्त)) इन्द्रियों के द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है।
अनासक्त हुआ ((समस्त)) इन्द्रियों के द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है।