Chapter 3 – कर्मयोग Shloka-7

Chapter-3_3.7

SHLOKA

यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते।।3.7।।

PADACHHED

य:_तु_इन्द्रियाणि, मनसा, नियम्य_आरभते_अर्जुन,
कर्मेन्द्रियै: , कर्म-योगम्_असक्त:, स:, विशिष्यते ॥ ७ ॥

ANAVYA

तु (हे) अर्जुन! य: (पुरुषः) मनसा इन्द्रियाणि नियम्य
असक्त: कर्मेन्द्रियै: कर्मयोगम् आरभते, स: विशिष्यते।

ANAVYA-INLINE-GLOSS

तु [किंतु], अर्जुन [हे अर्जुन!], य: [जो (पुरुष)], मनसा [मन के द्वारा], इन्द्रियाणि [इन्द्रियों को], नियम्य [वश में करके],
असक्त: [अनासक्त हुआ], कर्मेन्द्रियै: [((समस्त)) इन्द्रियों के द्वारा], कर्मयोगम् [कर्मयोग का], आरभते [आचरण करता है,], स: [वही], विशिष्यते [श्रेष्ठ है।],

ANUVAAD

किंतु हे अर्जुन! जो (पुरुष) मन के द्वारा इन्द्रियों को वश में करके
अनासक्त हुआ ((समस्त)) इन्द्रियों के द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है।

Leave a Reply