SHLOKA
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।।3.6।।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।।3.6।।
PADACHHED
कर्मेन्द्रियाणि, संयम्य, य:, आस्ते, मनसा, स्मरन्,
इन्द्रियार्थान्_विमूढात्मा, मिथ्याचार:, स:, उच्यते ॥ ६ ॥
इन्द्रियार्थान्_विमूढात्मा, मिथ्याचार:, स:, उच्यते ॥ ६ ॥
ANAVYA
यः विमूढात्मा (पुरुषः) कर्मेन्द्रियाणि (हठात्) संयम्य मनसा (तान्)
इन्दियाथार्न् स्मरन् आस्ते स: मिथ्याचार: उच्यते।
इन्दियाथार्न् स्मरन् आस्ते स: मिथ्याचार: उच्यते।
ANAVYA-INLINE-GLOSS
यः [जो], विमूढात्मा (पुरुषः) [मूढ़बुद्धि (मनुष्य)], कर्मेन्द्रियाणि (हठात्) [समस्त इन्द्रियों को (हठपूर्वक ((ऊपर से))], संयम्य [रोककर], मनसा [मन से (उन)],
इन्दियाथार्न् [इन्द्रियों के विषयों का], स्मरन् [चिन्तन करता], आस्ते [रहता है,], स: [वह], मिथ्याचार: [मिथ्याचारी अर्थात् दम्भी], उच्यते [कहा जाता है।],
इन्दियाथार्न् [इन्द्रियों के विषयों का], स्मरन् [चिन्तन करता], आस्ते [रहता है,], स: [वह], मिथ्याचार: [मिथ्याचारी अर्थात् दम्भी], उच्यते [कहा जाता है।],
ANUVAAD
जो मूढ़बुद्धि (मनुष्य) समस्त इन्द्रियों को (हठपूर्वक) ((ऊपर से)) रोककर मन से (उन)
इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात् दम्भी कहा जाता है।
इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात् दम्भी कहा जाता है।