Chapter 3 – कर्मयोग Shloka-6

Chapter-3_3.6

SHLOKA

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।।3.6।।

PADACHHED

कर्मेन्द्रियाणि, संयम्य, य:, आस्ते, मनसा, स्मरन्‌,
इन्द्रियार्थान्_विमूढात्मा, मिथ्याचार:, स:, उच्यते ॥ ६ ॥

ANAVYA

यः विमूढात्मा (पुरुषः) कर्मेन्द्रियाणि (हठात्) संयम्य मनसा (तान्)
इन्दियाथार्न् स्मरन् आस्ते स: मिथ्याचार: उच्यते।

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यः [जो], विमूढात्मा (पुरुषः) [मूढ़बुद्धि (मनुष्य)], कर्मेन्द्रियाणि (हठात्) [समस्त इन्द्रियों को (हठपूर्वक ((ऊपर से))], संयम्य [रोककर], मनसा [मन से (उन)],
इन्दियाथार्न् [इन्द्रियों के विषयों का], स्मरन् [चिन्तन करता], आस्ते [रहता है,], स: [वह], मिथ्याचार: [मिथ्याचारी अर्थात् दम्भी], उच्यते [कहा जाता है।],

ANUVAAD

जो मूढ़बुद्धि (मनुष्य) समस्त इन्द्रियों को (हठपूर्वक) ((ऊपर से)) रोककर मन से (उन)
इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात् दम्भी कहा जाता है।

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