|

Gita Chapter-3 Shloka-5

Chapter-3_3.5

SHLOKA

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।।3.5।।

PADACHHED

न, हि, कश्चित्_क्षणम्_अपि, जातु, तिष्ठति_अकर्म-कृत्‌,
कार्यते, हि_अवश:, कर्म, सर्व:, प्रकृति-जै:_गुणै: ॥ ५ ॥

ANAVYA

हि कश्चित् (पुरुषः) जातु क्षणम् अपि अकर्मकृत् न तिष्ठति हि
सर्व: (पुरुषजातिः) प्रकृतिजै: गुणै: अवशः कर्म कार्यते।

ANAVYA-INLINE-GLOSS

हि [निःसन्देह], कश्वित् (पुरुषः) [कोई भी (मनुष्य)], जातु [किसी भी काल में], क्षणम् [क्षणमात्र], अपि [भी], अकर्मकृत् [बिना कर्म किये], न [नहीं], तिष्ठति [रहता;], हि [क्योंकि],
सर्व: [सम्पूर्ण (मनुष्य-समुदाय)], प्रकृतिजै: [प्रकृति से उत्पन्न], गुणै: [गुणों द्वारा], अवशः [परवश हुआ], कर्म [कर्म ((करने के लिये))], कार्यते [((बाध्य)) किया जाता है।],

ANUVAAD

निःसन्देह कोई भी (मनुष्य) किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किये नहीं रहता; क्योंकि
सम्पूर्ण (मनुष्य-समुदाय) प्रकृति से उत्पन्न गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म ((करने के लिये)) ((बाध्य)) किया जाता है।

Similar Posts

Leave a Reply