Chapter 2 – साङ्ख्ययोग Shloka-8

Chapter-2_2.8

SHLOKA

न हि प्रपश्यामि ममापनुद्या-
द्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्।
अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं
राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम्।।2.8।।

PADACHHED

न, हि, प्रपश्यामि, मम_अपनुद्यात्_यत्_शोकम्_उच्छोषणम्_इन्द्रियाणाम्‌,
अवाप्य, भूमौ_असपत्नम्_ऋद्धम्‌, राज्यम्‌, सुराणाम्_अपि, च_आधिपत्यम्‌ ॥ ८ ॥

ANAVYA

हि भूमौ असपत्नं ऋद्धं राज्यं च सुराणाम्‌ आधिपत्यम्‌ अवाप्य अपि
(अहम्) (तत् उपायं) न प्रपश्यामि यत्‌ मम इन्द्रियाणाम्‌ उच्छोषणं शोकम् अपनुद्यात्‌।

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हि [क्योंकि], भूमौ [पृथ्वी में], असपत्नम् [निर्विघ्न,], ऋद्धम् [धनधान्य-सम्पन्न], राज्यम् [राज्य को], च [और], सुराणाम् [देवताओं के], आधिपत्यम् [स्वामित्व को], अवाप्य [प्राप्त होकर], अपि [भी], {(अहं) [मैं]}, {(तत् उपायं) [उस उपाय को},
न [नहीं], प्रपश्यामि [देखता हूँ,], यत् [जो], मम [मेरी], इन्द्रियाणाम् [इन्द्रियो के], उच्छोषणम् [सुखाने वाले], शोकम्, [शोक को], अपनुद्यात् [दूर कर सके।]'

ANUVAAD

क्योंकि पृथ्वी में निर्विघ्न, धनधान्य-सम्पन्न राज्य को और देवताओं के स्वामित्व को प्राप्त होकर भी (मैं)
(उस उपाय को) नहीं देखता हूँ, जो मेरी इन्द्रियों के सुखाने वाले शोक को दूर कर सके।

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