SHLOKA
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते।।2.15।।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते।।2.15।।
PADACHHED
यम्, हि, न, व्यथयन्ति_एते, पुरुषम्, पुरुषर्षभ,
सम-दु:ख-सुखम्, धीरम्, स:_अमृतत्वाय, कल्पते ॥ १५ ॥
सम-दु:ख-सुखम्, धीरम्, स:_अमृतत्वाय, कल्पते ॥ १५ ॥
ANAVYA
हि (हे) पुरुषर्षभ! समदुःखसुखं यं धीरं पुरुषं
एते (मात्रास्पर्शाः) न व्यथयन्ति:, सः अमृतत्वाय कल्पते।
एते (मात्रास्पर्शाः) न व्यथयन्ति:, सः अमृतत्वाय कल्पते।
ANAVYA-INLINE-GLOSS
हि [क्योंकि], (हे) पुरुषर्षभ! [हे पुरुषश्रेष्ठ! ((अर्जुन))], समदुःखसुखम् [दुःख-सुख को समान समझने वाले], यम् [जिस], धीरम् [धीर], पुरुषम् [पुरुष को],
एते [ये], {(मात्रास्पर्शाः) [इन्द्रिय और विषयों के संयोग]}, न व्यथयन्ति: [व्याकुल नहीं करते,], सः [वह], अमृतत्वाय [मोक्ष के], कल्पते [योग्य होता है।],
एते [ये], {(मात्रास्पर्शाः) [इन्द्रिय और विषयों के संयोग]}, न व्यथयन्ति: [व्याकुल नहीं करते,], सः [वह], अमृतत्वाय [मोक्ष के], कल्पते [योग्य होता है।],
ANUVAAD
क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ठ! ((अर्जुन)) दुःख-सुख को समान समझने वाले जिस धीर पुरुष को
ये (इन्द्रिय और विषयों के संयोग) व्याकुल नहीं करते, वह मोक्ष के योग्य होता है।
ये (इन्द्रिय और विषयों के संयोग) व्याकुल नहीं करते, वह मोक्ष के योग्य होता है।