Chapter 18 – मोक्षसन्न्यासयोग Shloka-77
SHLOKA
तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः।
विस्मयो मे महान् राजन् हृष्यामि च पुनः पुनः।।18.77।।
विस्मयो मे महान् राजन् हृष्यामि च पुनः पुनः।।18.77।।
PADACHHED
तत्_च, संस्मृत्य, संस्मृत्य, रूपम्_अति_अद्भुतम्, हरे:,
विस्मय:, मे, महान्, राजन्, हृष्यामि, च, पुनः, पुन: ॥ ७७ ॥
विस्मय:, मे, महान्, राजन्, हृष्यामि, च, पुनः, पुन: ॥ ७७ ॥
ANAVYA
(हे) राजन्! हरे: तत् अति अद्भुतं रूपं च संस्मृत्य संस्मृत्य मे (हृदि)
महान् विस्मय: (भवति) च (अहम्) पुन: पुनः हृष्यामि।
महान् विस्मय: (भवति) च (अहम्) पुन: पुनः हृष्यामि।
ANAVYA-INLINE-GLOSS
(हे) राजन्! [हे राजन्!], हरे: [श्रीहरि के], तत् [उस], अति [अत्यन्त], अद्भुतम् [विलक्षण], रूपम् [रूप को], च [भी], संस्मृत्य संस्मृत्य [पुन:-पुनः स्मरण करके], मे [मेरे], {(हृदि) [चित्त में]},
महान् [महान् ], विस्मय: (भवति) [आश्चर्य (होता है)], च [और], {(अहम्) [मैं]}, पुन: पुनः [बार-बार], हृष्यामि [हर्षित हो रहा हूँ।]
महान् [महान् ], विस्मय: (भवति) [आश्चर्य (होता है)], च [और], {(अहम्) [मैं]}, पुन: पुनः [बार-बार], हृष्यामि [हर्षित हो रहा हूँ।]
ANUVAAD
हे राजन्! श्रीहरि के उस अत्यन्त विलक्षण रूप को भी पुन:-पुनः स्मरण करके मेरे (चित्त में)
महान् आश्चर्य (होता है) और (मैं) बार-बार हर्षित हो रहा हूँ।
महान् आश्चर्य (होता है) और (मैं) बार-बार हर्षित हो रहा हूँ।