Chapter 18 – मोक्षसन्न्यासयोग Shloka-36-37
SHLOKA
सुखं त्विदानीं त्रिविधं श्रृणु मे भरतर्षभ।
अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति।।18.36।।
यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्।
तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम्।।18.37।।
अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति।।18.36।।
यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्।
तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम्।।18.37।।
PADACHHED
सुखम्, तु_इदानीम्, त्रि-विधम्, शृणु, मे, भरतर्षभ,
अभ्यासात्_रमते, यत्र, दुःखान्तम्, च, निगच्छति ॥ ३६ ॥
यत्_तत्_अग्रे, विषम्_इव, परिणामे_अमृतोपमम्,
तत्_सुखम्, सात्त्विकम्, प्रोक्तम्_आत्म-बुद्धि-प्रसाद-जम् ॥ ३७ ॥
अभ्यासात्_रमते, यत्र, दुःखान्तम्, च, निगच्छति ॥ ३६ ॥
यत्_तत्_अग्रे, विषम्_इव, परिणामे_अमृतोपमम्,
तत्_सुखम्, सात्त्विकम्, प्रोक्तम्_आत्म-बुद्धि-प्रसाद-जम् ॥ ३७ ॥
ANAVYA
(हे) भरतर्षभ! इदानीं त्रिविधं सुखं तु (त्वम्) मे शृणु; यत्र अभ्यासात् रमते च (येन) दुःखान्तं निगच्छति; यत् (एवम्) (सुखम्) तत् अग्रे विषम् इव (प्रतीयते), (परञ्च)
परिणामे अमृतोपमम् (अत:) तत् आत्मबुद्धिप्रसादजं सुखं सात्त्विकं प्रोक्तम्।
परिणामे अमृतोपमम् (अत:) तत् आत्मबुद्धिप्रसादजं सुखं सात्त्विकं प्रोक्तम्।
ANAVYA-INLINE-GLOSS
(हे) भरतर्षभ! [हे भरतश्रेष्ठ!], इदानीम् [अब], त्रिविधम् [तीन प्रकार के], सुखम् [सुख को], तु (त्वम्) [भी (तुम)], मे [मुझसे], शृणु [सुनो।], यत्र [जिस ((सुख)) में ((साधक मनुष्य))], अभ्यासात् [((भजन, ध्यान और सेवा आदि के)) अभ्यास से], रमते [रमण करता है], च (येन) [और (जिससे)], दुःखान्तम् [दु:खों के अन्त को], निगच्छति [प्राप्त हो जाता है-], यत् (एवम्) [जो (ऐसा)], (सुखम्) [सुख है,]}, तत् [वह], अग्रे [आरम्भकाल में (यद्यपि)], विषम् [विष के], इव (प्रतीयते,) [तुल्य (प्रतीत होता) है], {(परञ्च) [परन्तु]},
परिणामे [परिणाम में], अमृतोपमम् [अमृत के तुल्य है;], {(अत:) [इसलिये]}, तत् [वह], आत्मबुद्धिप्रसादजम् [परमात्म विषयक बुद्धि के प्रसाद से उत्पन्न होने वाला], सुखम् [सुख], सात्त्विकम् [सात्त्विक], प्रोक्तम् [कहा गया है।],
परिणामे [परिणाम में], अमृतोपमम् [अमृत के तुल्य है;], {(अत:) [इसलिये]}, तत् [वह], आत्मबुद्धिप्रसादजम् [परमात्म विषयक बुद्धि के प्रसाद से उत्पन्न होने वाला], सुखम् [सुख], सात्त्विकम् [सात्त्विक], प्रोक्तम् [कहा गया है।],
ANUVAAD
हे भरतश्रेष्ठ! अब तीन प्रकार के सुख को भी (तुम) मुझसे सुनो। जिस ((सुख)) में ((साधक मनुष्य)) ((भजन, ध्यान और सेवा आदि के)) अभ्यास से रमण करता है और (जिससे) दु:खों के अन्त को प्राप्त हो जाता है; जो (ऐसा सुख है), वह आरम्भ काल में (यद्यपि) विष के तुल्य (प्रतीत होता) है (परन्तु)
परिणाम में अमृत के तुल्य है; (इसलिये) वह परमात्म विषयक बुद्धि के प्रसाद से उत्पन्न होने वाला सुख सात्त्विक कहा गया है।
परिणाम में अमृत के तुल्य है; (इसलिये) वह परमात्म विषयक बुद्धि के प्रसाद से उत्पन्न होने वाला सुख सात्त्विक कहा गया है।