Chapter 15 – पुरुषोत्तमयोग Shloka-3-4
SHLOKA
न रूपमस्येह तथोपलभ्यते
नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल-
मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा।।15.3।।
ततः पदं तत्परिमार्गितव्यम्
यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये
यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी।।15.4।।
नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल-
मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा।।15.3।।
ततः पदं तत्परिमार्गितव्यम्
यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये
यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी।।15.4।।
PADACHHED
न, रूपम्_अस्य_इह, तथा_उपलभ्यते, न_अन्त:, न,
च_आदि:_न, च, सम्प्रतिष्ठा, अश्वत्थम्_एनम्,
सुविरूढ-मूलम्_असङ्ग-शस्त्रेण, दृढेन, छित्त्वा ॥ ३ ॥
तत:, पदम्, तत्_परिमार्गितव्यम्, यस्मिन्_गता:, न,
निवर्तन्ति, भूय:, तम्_एव्, च_आद्यम्, पुरुषम्, प्रपद्ये,
यत:, प्रवृत्ति:, प्रसृता, पुराणी ॥ ४ ॥
च_आदि:_न, च, सम्प्रतिष्ठा, अश्वत्थम्_एनम्,
सुविरूढ-मूलम्_असङ्ग-शस्त्रेण, दृढेन, छित्त्वा ॥ ३ ॥
तत:, पदम्, तत्_परिमार्गितव्यम्, यस्मिन्_गता:, न,
निवर्तन्ति, भूय:, तम्_एव्, च_आद्यम्, पुरुषम्, प्रपद्ये,
यत:, प्रवृत्ति:, प्रसृता, पुराणी ॥ ४ ॥
ANAVYA
अस्य रूपं तथा इह न उपलभ्यते (यत:) न (तु अस्य) आदि: च न अन्त: च न (अस्य) सम्प्रतिष्ठा (एव) (अस्ति),
(अत:) एनं सुविरूढमूलम् अश्वत्थं दृढेन असङ्गशस्त्रेण छित्त्वा।
तत: तत् पदं परिमार्गितव्यं यस्मिन् गता: भूय: न निवर्तन्ति च यत:
पुराणी प्रवृत्ति: प्रसृता तं एव आद्यं पुरुषं (अहम्) प्रपद्ये।
(अत:) एनं सुविरूढमूलम् अश्वत्थं दृढेन असङ्गशस्त्रेण छित्त्वा।
तत: तत् पदं परिमार्गितव्यं यस्मिन् गता: भूय: न निवर्तन्ति च यत:
पुराणी प्रवृत्ति: प्रसृता तं एव आद्यं पुरुषं (अहम्) प्रपद्ये।
ANAVYA-INLINE-GLOSS
अस्य [इस ((संसार वृक्ष)) का], रूपम् [स्वरूप ((जैसा कहा है)),], तथा [वैसा], इह [यहाँ ((विचारकाल में))], न [नहीं], उपलभ्यते [पाया जाता], {(यत:) [क्योंकि]}, न (तु अस्य) [न (तो इसका)], आदि: [आदि है], च [और], न [न], अन्त: [अन्त है], च [तथा], न (अस्य) [न (इसकी)], सम्प्रतिष्ठा (एव) (अस्ति) [अच्छी प्रकार से स्थिति (ही है)],
{(अत:) [इसलिये]}, एनम् [इस], सुविरूढमूलम् [((अहंता, ममता और वासनारूप)) अति दृढ़ मूलों वाले], अश्वत्थम् [((संसाररूप)) पीपल के वृक्ष को], दृढेन [दृढ़], असङ्गशस्त्रेण [((वैराग्यरूप)) शस्त्र के द्वारा], छित्त्वा [काटकर],
तत: [उसके पश्चात्], तत् [उस], पदम् [((परमपदरूप)) परमेश्वर को], परिमार्गितव्यम् [भलीभाँति खोजना चाहिये,], यस्मिन् [जिसमें], गता: [गये हुए ((पुरुष))], भूय: [फिर], न निवर्तन्ति [लौटकर ((संसार में)) नहीं आते], च [और], यत: [जिस ((परमेश्वर)) से],
पुराणी [((इस)) पुरातन], प्रवृत्ति: [((संसारवृक्ष)) की प्रवृत्ति], प्रसृता [विस्तार को प्राप्त हुई है,], तम् एव [उसी], आद्यं पुरुषम् [आदि-पुरुष ((नारायण)) के], (अहम्) प्रपद्ये [(मैं) शरण हूँ- ((इस प्रकार दृढ़ निश्चय करके उस परमेश्वर का मनन और निदिध्यासन करना चाहिये।))],
{(अत:) [इसलिये]}, एनम् [इस], सुविरूढमूलम् [((अहंता, ममता और वासनारूप)) अति दृढ़ मूलों वाले], अश्वत्थम् [((संसाररूप)) पीपल के वृक्ष को], दृढेन [दृढ़], असङ्गशस्त्रेण [((वैराग्यरूप)) शस्त्र के द्वारा], छित्त्वा [काटकर],
तत: [उसके पश्चात्], तत् [उस], पदम् [((परमपदरूप)) परमेश्वर को], परिमार्गितव्यम् [भलीभाँति खोजना चाहिये,], यस्मिन् [जिसमें], गता: [गये हुए ((पुरुष))], भूय: [फिर], न निवर्तन्ति [लौटकर ((संसार में)) नहीं आते], च [और], यत: [जिस ((परमेश्वर)) से],
पुराणी [((इस)) पुरातन], प्रवृत्ति: [((संसारवृक्ष)) की प्रवृत्ति], प्रसृता [विस्तार को प्राप्त हुई है,], तम् एव [उसी], आद्यं पुरुषम् [आदि-पुरुष ((नारायण)) के], (अहम्) प्रपद्ये [(मैं) शरण हूँ- ((इस प्रकार दृढ़ निश्चय करके उस परमेश्वर का मनन और निदिध्यासन करना चाहिये।))],
ANUVAAD
इस ((संसार वृक्ष)) का स्वरूप ((जैसा कहा है)), वैसा यहाँ ((विचारकाल में)) नहीं पाया जाता क्योंकि न (तो) (इसका) आदि है और न अन्त है तथा न (इसकी) अच्छी प्रकार से स्थिति (ही है)
इसलिये इस ((अहंता, ममता और वासनारूप)) अति दृढ़ मूलों वाले ((संसाररूप)) पीपल के वृक्ष को दृढ़ ((वैराग्यरूप)) शस्त्र के द्वारा काटकर
उसके पश्चात् उस ((परमपदरूप)) परमेश्वर को भलीभाँति खोजना चाहिये, जिसमें गये हुए ((पुरुष)) फिर लौटकर ((संसार में)) नहीं आते और जिस ((परमेश्वर)) से ((इस))
पुरातन ((संसारवृक्ष)) की प्रवृत्ति विस्तार को प्राप्त हुई है, उसी आदि-पुरुष (नारायण) के (मैं) शरण हूँ- ((इस प्रकार दृढ़ निश्चय करके उस परमेश्वर का मनन और निदिध्यासन करना चाहिये।))
इसलिये इस ((अहंता, ममता और वासनारूप)) अति दृढ़ मूलों वाले ((संसाररूप)) पीपल के वृक्ष को दृढ़ ((वैराग्यरूप)) शस्त्र के द्वारा काटकर
उसके पश्चात् उस ((परमपदरूप)) परमेश्वर को भलीभाँति खोजना चाहिये, जिसमें गये हुए ((पुरुष)) फिर लौटकर ((संसार में)) नहीं आते और जिस ((परमेश्वर)) से ((इस))
पुरातन ((संसारवृक्ष)) की प्रवृत्ति विस्तार को प्राप्त हुई है, उसी आदि-पुरुष (नारायण) के (मैं) शरण हूँ- ((इस प्रकार दृढ़ निश्चय करके उस परमेश्वर का मनन और निदिध्यासन करना चाहिये।))