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Chapter 13 – क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोग/क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोग Shloka-4

Chapter-13_1.4

SHLOKA

ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक्।
ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः।।13.4।।

PADACHHED

ऋषिभि:_बहुधा, गीतम्‌, छन्दोभि:_विविधै:, पृथक्,
ब्रह्मसूत्र-पदै:_च_एव, हेतुमद्भि:_विनिश्चितै: ॥ ४ ॥

ANAVYA

ऋषिभि: बहुधा गीतम् (च) विविधै: छन्दोभि: पृथक् (गीतम्),
च विनिश्चितै: हेतुमद्भि: ब्रह्मसूत्रपदै: एव (गीतम्)।

ANAVYA-INLINE-GLOSS

ऋषिभि: [((यह क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का तत्त्व)) ऋषियों द्वारा], बहुधा [बहुत प्रकार से], गीतम् (च) [कहा गया है (और)], विविधै: [विविध], छन्दोभि: [वेद मन्त्रों द्वारा ((भी))], पृथक् [विभाग पूर्वक], {(गीतम्) [कहा गया है]},
च [तथा], विनिश्चितै: [भलीभाँति निश्चय किये हुए], हेतुमद्भि: [युक्तिसंगत], ब्रह्मसूत्रपदै: [ब्रह्मसूत्र के पदों द्वारा], एव [भी], {(गीतम्) [कहा गया है।]},

ANUVAAD

((यह क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का तत्त्व)) ऋषियों द्वारा बहुत प्रकार से कहा गया है (और) विविध वेद मन्त्रों द्वारा ((भी)) विभाग पूर्वक (कहा गया है)
तथा भलीभाँति निश्चय किये हुए युक्तिसंगत ब्रह्मसूत्र के पदों द्वारा भी कहा गया है।

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