SHLOKA
समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्।
न हिनस्त्यात्मनाऽऽत्मानं ततो याति परां गतिम्।।13.28।।
न हिनस्त्यात्मनाऽऽत्मानं ततो याति परां गतिम्।।13.28।।
PADACHHED
समम्, पश्यन्_हि, सर्वत्र, समवस्थितम्_ईश्वरम्,
न, हिनस्ति_आत्मना_आत्मानम्, तत:, याति, पराम्, गतिम् ॥ २८ ॥
न, हिनस्ति_आत्मना_आत्मानम्, तत:, याति, पराम्, गतिम् ॥ २८ ॥
ANAVYA
हि (यः) सर्वत्र समवस्थितम् ईश्वरं समं पश्यन्
आत्मना आत्मानं न हिनस्ति तत: (सः) परां गतिं याति।
आत्मना आत्मानं न हिनस्ति तत: (सः) परां गतिं याति।
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हि (यः) [क्योंकि (जो ((पुरुष))], सर्वत्र [सब में], समवस्थितम् [समान भाव से स्थित], ईश्वरम् [परमेश्वर को], समम् [समान], पश्यन् [देखता हुआ],
आत्मना [अपने द्वारा], आत्मानम् [अपने को], न हिनस्ति [नष्ट नहीं करता,], तत: (सः) [इससे (वह)], पराम् [परम], गतिम् [गति को], याति [प्राप्त होता है।],
आत्मना [अपने द्वारा], आत्मानम् [अपने को], न हिनस्ति [नष्ट नहीं करता,], तत: (सः) [इससे (वह)], पराम् [परम], गतिम् [गति को], याति [प्राप्त होता है।],
ANUVAAD
क्योंकि (जो) ((पुरुष)) सबमें समान भाव से स्थित परमेश्वर को समान देखता हुआ
अपने द्वारा अपने को नष्ट नहीं करता, इससे (वह) परम गति को प्राप्त होता है।
अपने द्वारा अपने को नष्ट नहीं करता, इससे (वह) परम गति को प्राप्त होता है।