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Chapter 13 – क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोग/क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोग Shloka-26

Chapter-13_1.26

SHLOKA

यावत्सञ्जायते किञ्चित्सत्त्वं स्थावरजङ्गमम्।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ।।13.26।।

PADACHHED

यावत्_सञ्जायते, किञ्चित्_सत्त्वम्, स्थावर-जङ्गमम्‌,
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-संयोगात्_तद्_विद्धि, भरतर्षभ ॥२६॥

ANAVYA

(हे) भरतर्षभ! यावत्‌ किञ्चित्‌ स्थावरजङ्गमं सत्त्वं सञ्जायते
तत्‌ (त्वम्) क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात् (एव) विद्धि।

ANAVYA-INLINE-GLOSS

(हे) भरतर्षभ! [हे अर्जुन!], यावत् किञ्चित् [जितने भी], स्थावरजङ्गमम् [चल और अचल], सत्त्वम् [प्राणी], सञ्जायते [उत्पन्न होते हैं,],
तत् (त्वम्) [उन ((सबको)) तुम)], क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात् (एव) [क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से ही (उत्पन्न)], विद्धि [जानो।]

ANUVAAD

हे अर्जुन! जितने भी चल और अचल प्राणी उत्पन्न होते हैं,
उन ((सबको)) (तुम) क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से ही (उत्पन्न) जानो।

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