SHLOKA
यावत्सञ्जायते किञ्चित्सत्त्वं स्थावरजङ्गमम्।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ।।13.26।।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ।।13.26।।
PADACHHED
यावत्_सञ्जायते, किञ्चित्_सत्त्वम्, स्थावर-जङ्गमम्,
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-संयोगात्_तद्_विद्धि, भरतर्षभ ॥२६॥
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-संयोगात्_तद्_विद्धि, भरतर्षभ ॥२६॥
ANAVYA
(हे) भरतर्षभ! यावत् किञ्चित् स्थावरजङ्गमं सत्त्वं सञ्जायते
तत् (त्वम्) क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात् (एव) विद्धि।
तत् (त्वम्) क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात् (एव) विद्धि।
ANAVYA-INLINE-GLOSS
(हे) भरतर्षभ! [हे अर्जुन!], यावत् किञ्चित् [जितने भी], स्थावरजङ्गमम् [चल और अचल], सत्त्वम् [प्राणी], सञ्जायते [उत्पन्न होते हैं,],
तत् (त्वम्) [उन ((सबको)) तुम)], क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात् (एव) [क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से ही (उत्पन्न)], विद्धि [जानो।]
तत् (त्वम्) [उन ((सबको)) तुम)], क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात् (एव) [क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से ही (उत्पन्न)], विद्धि [जानो।]
ANUVAAD
हे अर्जुन! जितने भी चल और अचल प्राणी उत्पन्न होते हैं,
उन ((सबको)) (तुम) क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से ही (उत्पन्न) जानो।
उन ((सबको)) (तुम) क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से ही (उत्पन्न) जानो।