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Chapter 13 – क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोग/क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोग Shloka-10

Chapter-13_1.10

SHLOKA

मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि।।13.10।।

PADACHHED

मयि, च_अनन्य-योगेन, भक्ति:_अव्यभिचारिणी,
विविक्त-देश-सेवित्वम्_अरति:_जन-संसदि ॥ १० ॥

ANAVYA

मयि अनन्ययोगेन अव्यभिचारिणी भक्ति: च
विविक्तदेशसेवित्वं (च) जनसंसदि अरति: -

ANAVYA-INLINE-GLOSS

मयि [मुझ ((परमेश्वर)) में], अनन्ययोगेन [अनन्य योग के द्वारा], अव्यभिचारिणी [अव्यभिचारिणी], भक्ति: [भक्ति], च [तथा],
विविक्तदेशसेवित्वम् (च) [एकान्त और शुद्ध देश में रहने का स्वभाव (और)], जनसंसदि [((विषयासक्त)) मनुष्यों के समुदाय में], अरति: [प्रेम का न होना- ],

ANUVAAD

मुझ ((परमेश्वर)) में अनन्य योग के द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति तथा
एकान्त और शुद्ध देश में रहने का स्वभाव (और) ((विषयासक्त)) मनुष्यों के समुदाय में प्रेम का न होना -

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