Gita Chapter-10 Shloka-18
SHLOKA
विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन।
भूयः कथय तृप्तिर्हि श्रृण्वतो नास्ति मेऽमृतम्।।10.18।।
भूयः कथय तृप्तिर्हि श्रृण्वतो नास्ति मेऽमृतम्।।10.18।।
PADACHHED
विस्तरेण_आत्मन:, योगम्, विभूतिम्, च, जनार्दन,
भूय:, कथय, तृप्ति:_हि, श्रृण्वत:, न_अस्ति, मे_अमृतम् ॥ १८ ॥
भूय:, कथय, तृप्ति:_हि, श्रृण्वत:, न_अस्ति, मे_अमृतम् ॥ १८ ॥
ANAVYA
(हे) जनार्दन! आत्मन: योगं च विभूतिं भूय: विस्तरेण कथय,
हि (भवतः) अमृतं श्रृण्वत: मे तृप्ति: न अस्ति।
हि (भवतः) अमृतं श्रृण्वत: मे तृप्ति: न अस्ति।
ANAVYA-INLINE-GLOSS
(हे) जनार्दन! [हे जनार्दन!], आत्मन: [अपनी], योगम् [योग शक्ति को], च [और], विभूतिम् [विभूति को], भूय: [पुनः], विस्तरेण [विस्तार पूर्वक], कथय [कहिये;],
हि (भवतः) [क्योंकि (आपके)], अमृतम् [अमृतमय ((वचनों)) को], श्रृण्वत: [सुनते हुए], मे [मेरी], तृप्ति: [तृप्ति], न अस्ति [नहीं होती अर्थात् सुनने की उत्कण्ठा बनी ही रहती है।],
हि (भवतः) [क्योंकि (आपके)], अमृतम् [अमृतमय ((वचनों)) को], श्रृण्वत: [सुनते हुए], मे [मेरी], तृप्ति: [तृप्ति], न अस्ति [नहीं होती अर्थात् सुनने की उत्कण्ठा बनी ही रहती है।],
ANUVAAD
हे जनार्दन! अपनी योग शक्ति को और विभूति को पुनः विस्तार पूर्वक कहिये;
क्योंकि (आपके) अमृतमय ((वचनों)) को सुनते हुए मेरी तृप्ति नहीं होती अर्थात् सुनने की उत्कण्ठा बनी ही रहती है।
क्योंकि (आपके) अमृतमय ((वचनों)) को सुनते हुए मेरी तृप्ति नहीं होती अर्थात् सुनने की उत्कण्ठा बनी ही रहती है।