SHLOKA
वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः।
याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि।।10.16।।
याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि।।10.16।।
PADACHHED
वक्तुम्_अर्हसि_अशेषेण, दिव्या:, हि_आत्म-विभूतय:,
याभि:_विभूतिभि:_लोकान्_इमान्_त्वम्_व्याप्य, तिष्ठसि ॥ १६ ॥
याभि:_विभूतिभि:_लोकान्_इमान्_त्वम्_व्याप्य, तिष्ठसि ॥ १६ ॥
ANAVYA
(अतः) त्वं हि दिव्या: आत्मविभूतय: अशेषेण वक्तुम् अर्हसि,
याभि: विभूतिभि: (त्वम्) इमान् लोकान् व्याप्य तिष्ठसि।
याभि: विभूतिभि: (त्वम्) इमान् लोकान् व्याप्य तिष्ठसि।
ANAVYA-INLINE-GLOSS
{(अतः) [इसलिए]}, त्वम् [आप], हि [ही (उन)], दिव्या: आत्मविभूतय: [अपनी दिव्य विभूतियों को], अशेषेण [सम्पूर्णता से], वक्तुम् [कहने में], अर्हसि [समर्थ हैं,],
याभि: [जिन], विभूतिभि: (त्वम्) [विभूतियों के द्वारा (आप)], इमान् [इन सभी], लोकान् [लोकों को], व्याप्य [व्याप्त करके], तिष्ठसि [स्थित हैं।],
याभि: [जिन], विभूतिभि: (त्वम्) [विभूतियों के द्वारा (आप)], इमान् [इन सभी], लोकान् [लोकों को], व्याप्य [व्याप्त करके], तिष्ठसि [स्थित हैं।],
ANUVAAD
(इसलिये) आप ही (उन) अपनी दिव्य विभूतियों को सम्पूर्णता से कहने में समर्थ हैं,
जिन विभूतियों के द्वारा (आप) इन सभी लोकों को व्याप्त करके स्थित हैं।
जिन विभूतियों के द्वारा (आप) इन सभी लोकों को व्याप्त करके स्थित हैं।