Chapter 1 – अर्जुनविषादयोग Shloka-38-39

Chapter-1_1.38.39

SHLOKA

यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्।।1.38।।
कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम्।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन।।1.39।।

PADACHHED

यद्यपि_एते, न, पश्यन्ति, लोभोपहत-चेतस:,
कुल-क्षय-कृतम्‌, दोषम्‌, मित्र-द्रोहे, च, पातकम्‌ ॥ ३८ ॥
कथम्‌, न, ज्ञेयम्_अस्माभि:, पापात्_अस्मात्_निवर्तितुम्‌,
कुल-क्षय-कृतम्‌, दोषम्‌, प्रपश्यद्भि:_जनार्दन ॥ ३९ ॥

ANAVYA

यद्यपि लोभोपहतचेतस: एते कुलक्षयकृतं दोषं च मित्रद्रोहे पातकं न पश्यन्ति; (अपि तु)
(हे) जनार्दन! कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भि: अस्माभि: अस्मात्‌ पापात्‌ निवर्तितुं कथं न ज्ञेयम्।

ANAVYA-INLINE-GLOSS

यद्यपि [यद्यपि], लोभोपहतचेतस: [लोभ से भ्रष्टचित्त हुए], एते [ये लोग], कुलक्षयकृतम् [कुल के नाश से उत्पन्न], दोषम् [दोष को], च [और], मित्रद्रोहे [मित्रों से विरोध करने में], पातकम् [पाप को], न [नहीं], पश्यन्ति (अपि तु) [देखते, (तो भी)],
(हे) जनार्दन! [हे जनार्दन!], कुलक्षयकृतम् [कुल के नाश से उत्पन्न], दोषम् [दोष को], प्रपश्यद्भि: [जानने वाले], अस्माभि: [हम लोगों को], अस्मात् [इस], पापात् [पाप से], निवर्तितुम् [हटने के लिये], कथम् [क्यों], न [नहीं], ज्ञेयम् [विचार करना चाहिये?],

ANUVAAD

यद्यपि लोभ से भ्रष्टचित्त हुए ये लोग कुल के नाश से उत्पन्न दोष को और मित्रों से विरोध करने में पाप को नहीं देखते, (तो भी)
हे जनार्दन! कुल के नाश से उत्पन्न दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से हटने के लिये क्यों नहीं विचार करना चाहिये?

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