Chapter 6 – ध्यानयोग/आत्मसंयमयोग Shloka-13-14

Chapter-6_6.13.14

SHLOKA

समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः।
संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्।।6.13।।
प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः।
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः।।6.14।।

PADACHHED

समम्‌, काय-शिरो-ग्रीवम्‌, धारयन्_अचलम्‌, स्थिर:,
सम्प्रेक्ष्य, नासिकाग्रम्, स्वम्‌, दिश:_च_अनवलोकयन्‌ ॥ १३ ॥
प्रशान्तात्मा, विगत-भी:_ब्रह्मचारि-व्रते, स्थित:,
मन:, संयम्य, मच्चित्त:, युक्त:, आसीत, मत्पर: ॥ १४ ॥

ANAVYA

कायशिरोग्रीवं समम्‌ अचलं (च) धारयन् च स्थिर:
स्वं नासिकाग्रं सम्प्रेक्ष्य दिश: अनवलोकयन्‌
ब्रह्मचारिव्रते स्थितः विगतभी: (तथा) प्रशान्तात्मा युक्त:
मन: संयम्य मच्चित्त: मत्पर: (च) आसीत।

ANAVYA-INLINE-GLOSS

कायशिरोग्रीवम् [काया, सिर और गले को], समम् [समान], अचलम् (च) [(और) अचल], धारयन् [धारण करके], च [और], स्थिर: [स्थिर होकर,],
स्वम् [अपनी], नासिकाग्रम् [नासिका के अग्रभाग पर], सम्प्रेक्ष्य [दृष्टि जमाकर (अन्य)], दिश: [दिशाओं को], अनवलोकयन् [न देखता हुआ]
ब्रह्मचारिव्रते [ब्रह्मचारी के व्रत में], स्थितः [स्थित], विगतभी: (तथा) [भय से रहित तथा], प्रशान्तात्मा [भलीभाँति शान्त अन्त:करण वाला], युक्त: [सावधान योगी],
मन: [मन को], संयम्य [रोककर], मच्चित्त: [मुझ में चित्त वाला], मत्पर: (च) [(और) मेरे परायण होकर], आसीत [स्थित होवे।],

ANUVAAD

काया, सिर और गले को समान (एवं) अचल धारण करके और स्थिर होकर,
अपनी नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि जमाकर (अन्य) दिशाओं को न देखता हुआ
ब्रह्मचारी के व्रत में स्थित भय से रहित तथा भलीभाँति शान्त अन्त:करणवाला योगी
मन को रोककर मुझ में चित्त वाला (और) मेरे परायण होकर स्थित होवे।

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