Chapter 5 – कर्मसन्न्यासयोग Shloka-27-28
SHLOKA
स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ।।5.27।।
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः।
विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः।।5.28।।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ।।5.27।।
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः।
विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः।।5.28।।
PADACHHED
स्पर्शान्_कृत्वा, बहि:_बाह्यान्_चक्षु:_च_एव_अन्तरे, भ्रुवो:,
प्राणापानौ, समौ, कृत्वा, नासाध्यन्तर-चारिणौ ॥ २७ ॥
यतेन्द्रिय-मनो-बुद्धि:_मुनि:_मोक्ष-परायण:,
विगतेच्छा-भय-क्रोध:, य:, सदा, मुक्त:, एव, स: ॥ २८ ॥
प्राणापानौ, समौ, कृत्वा, नासाध्यन्तर-चारिणौ ॥ २७ ॥
यतेन्द्रिय-मनो-बुद्धि:_मुनि:_मोक्ष-परायण:,
विगतेच्छा-भय-क्रोध:, य:, सदा, मुक्त:, एव, स: ॥ २८ ॥
ANAVYA
बाह्यान् स्पर्शान् बहि: एव कृत्वा च चक्षु: भ्रुवोः अन्तरे (स्थाप्य) (तथा) नासाध्यन्तरचारिणौ प्राणापानौ समौ कृत्वा
यतेन्द्रियमनोबुद्धिः (ईदृशः) य: मोक्षपरायण: मुनि: विगतेच्छाभयक्रोध: (अस्ति) स: सदा मुक्त: एव (अस्ति)।
यतेन्द्रियमनोबुद्धिः (ईदृशः) य: मोक्षपरायण: मुनि: विगतेच्छाभयक्रोध: (अस्ति) स: सदा मुक्त: एव (अस्ति)।
ANAVYA-INLINE-GLOSS
बाह्यान् [बाहर के], स्पर्शान् [विषय भोगों को ((न चिन्तन करता हुआ))], बहि: [बाहर], एव [ही], कृत्वा [निकाल कर], च [और], चक्षु: [नेत्रों की दृष्टि को], भ्रुवो [भृकुटी के], अन्तरे (स्थाप्य) (तथा) [बीच में (स्थित करके) (तथा)], नासाध्यन्तरचारिणौ [नासिका में विचरण करने वाले], प्राणापानौ [प्राण और अपान वायु को], समौ [सम], कृत्वा [करके],
यतेन्द्रियमनोबुद्धि [जिसकी इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि जीती हुई हैं], {(ईदृशः) [ऐसा]}, य: [जो], मोक्षपरायण: [मोक्ष मेें तत्पर], मुनि: [मुनि], विगतेच्छाभयक्रोध: (अस्ति) [इच्छा, भय और क्रोध से रहित हो गया हैं,], स: [वह], सदा [सदा], मुक्त: [मुक्त], एव (अस्ति) [ही है।]
यतेन्द्रियमनोबुद्धि [जिसकी इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि जीती हुई हैं], {(ईदृशः) [ऐसा]}, य: [जो], मोक्षपरायण: [मोक्ष मेें तत्पर], मुनि: [मुनि], विगतेच्छाभयक्रोध: (अस्ति) [इच्छा, भय और क्रोध से रहित हो गया हैं,], स: [वह], सदा [सदा], मुक्त: [मुक्त], एव (अस्ति) [ही है।]
ANUVAAD
बाहर के विषय भोगों को ((न चिन्तन करता हुआ)) बाहर ही निकाल कर और नेत्रों की दृष्टि को भृकुटी के बीच में (स्थित करके) (तथा) नासिका में विचरण करने वाले प्राण और अपान वायु को सम करके
जिसकी इन्द्रियाँ मन और बुद्धि जीती हुई हैं, (ऐसा) जो मोक्ष में तत्पर मुनि इच्छा, भय और क्रोध से रहित हो गया हैं, वह सदा मुक्त ही है।
जिसकी इन्द्रियाँ मन और बुद्धि जीती हुई हैं, (ऐसा) जो मोक्ष में तत्पर मुनि इच्छा, भय और क्रोध से रहित हो गया हैं, वह सदा मुक्त ही है।