SHLOKA
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्।।4.7।।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्।।4.7।।
PADACHHED
यदा, यदा, हि, धर्मस्य, ग्लानिः_भवति, भारत,
अभ्युत्थानम्_अधर्मस्य, तदा_आत्मानम् , सृजामि_अहम् ॥ ७ ॥
अभ्युत्थानम्_अधर्मस्य, तदा_आत्मानम् , सृजामि_अहम् ॥ ७ ॥
ANAVYA
(हे) भारत! यदा यदा धर्मस्य ग्लानि: (च) अधर्मस्य अभ्युत्थानं भवति
तदा हि अहम् आत्मानं सृजामि।
तदा हि अहम् आत्मानं सृजामि।
ANAVYA-INLINE-GLOSS
(हे) भारत! [हे भारत! ((अर्जुन))], यदा यदा [जब-जब], धर्मस्य [धर्म की], ग्लानि: (च) [हानि (और)], अधर्मस्य [अधर्म की], अभ्युत्थानम् [वृद्धि], भवति [होती है,],
तदा [तब-तब], हि [ही], अहम् [मैं], आत्मानम् [अपने रूप को], सृजामि [रचता हूँ अर्थात् साकाररूप में लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ।],
तदा [तब-तब], हि [ही], अहम् [मैं], आत्मानम् [अपने रूप को], सृजामि [रचता हूँ अर्थात् साकाररूप में लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ।],
ANUVAAD
हे भारत! ((अर्जुन)) जब-जब धर्म की हानि (और) अधर्म की वृद्धि होती है,
तब-तब ही मै अपने रूप को रचता हूँ अर्थात् साकाररूप में लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ।
तब-तब ही मै अपने रूप को रचता हूँ अर्थात् साकाररूप में लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ।