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Chapter 4 – ज्ञानकर्मसन्न्यासयोग Shloka-41

Chapter-4_4.41

SHLOKA

योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसञ्छिन्नसंशयम्।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय।।4.41।।

PADACHHED

योग-सन्न्यस्त-कर्माणम्‌, ज्ञान-सञ्छिन्न-संशयम्‌,
आत्मवन्तम्‌, न, कर्माणि, निबध्नन्ति, धनञ्जय ॥ ४१ ॥

ANAVYA

(हे) धनञ्जय! (येन) योगसन्न्यस्तकर्माणं (येन) (च) ज्ञानसञ्छिन्नसंशयम्‌ (एवं)
आत्मवन्तं (पुरुषं) कर्माणि न निबध्नन्ति।

ANAVYA-INLINE-GLOSS

(हे) धनञ्जय! [हे धनंजय !], (येन) योगसन्न्यस्तकर्माणम् [(जिसने) कर्मयोग की विधि से समस्त कर्मों को परमात्मा में अर्पण कर दिया है], (येन) (च) ज्ञानसञ्छिन्नसंशयम् [(और जिसने) विवेकद्वारा समस्त संशयों का नाश कर दिया है], {(एवं) [ऐसे)], आत्मवन्तम् (पुरुषं) [वश में किये हुए अन्त:करण वाले (पुरुष को)], कर्माणि [कर्म], न [नहीं], निबध्नन्ति [बाँधते।],

ANUVAAD

हे धनंजय ! (जिसने) कर्मयोग की विधि से समस्त कर्मों को परमात्मा में अर्पण कर दिया है, (और) (जिसने) विवेकद्वारा समस्त संशयों का नाश कर दिया है, (ऐसे)
वश में किये हुए अन्त:करण वाले पुरुष को कर्म नहीं बाँधते।

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