Chapter 4 – ज्ञानकर्मसन्न्यासयोग Shloka-12

Chapter-4_4.12

SHLOKA

काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः।
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा।।4.12।।

PADACHHED

काङ्क्षन्त:, कर्मणाम्‌, सिद्धिम्, यजन्ते, इह, देवता:,
क्षिप्रम्, हि, मानुषे, लोके, सिद्धि:_भवति, कर्मजा ॥ १२ ॥

ANAVYA

इह मानुषे लोके कर्मणां सिद्धिं काङ्क्षन्त: देवता:
यजन्ते हि (तान्) कर्मजा सिद्धि: क्षिप्रं भवति।

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इह [इस], मानुषे [मनुष्य], लोके [लोक में], कर्मणाम् [कर्मों के], सिद्धिम् [फल को], काङ्क्षन्त: [चाहने वाले ((लोग))], देवता: [देवताओं का],
यजन्ते [पूजन किया करते हैं;], हि (तान्) [क्योंकि (उनको)], कर्मजा [कर्मों से उत्पन्न होने वाली], सिद्धि: [सिद्धि], क्षिप्रम् (एव) [शीघ्र ((ही))], भवति [मिल जाती है।],

ANUVAAD

इस मनुष्य लोक में कर्मों के फल को चाहने वाले ((लोग)) देवताओं का
पूजन किया करते हैं; क्योंकि (उनको) कर्मों से उत्पन्न होने वाली सिद्धि शीघ्र ((ही)) मिल जाती है।

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