SHLOKA
काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः।
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा।।4.12।।
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा।।4.12।।
PADACHHED
काङ्क्षन्त:, कर्मणाम्, सिद्धिम्, यजन्ते, इह, देवता:,
क्षिप्रम्, हि, मानुषे, लोके, सिद्धि:_भवति, कर्मजा ॥ १२ ॥
क्षिप्रम्, हि, मानुषे, लोके, सिद्धि:_भवति, कर्मजा ॥ १२ ॥
ANAVYA
इह मानुषे लोके कर्मणां सिद्धिं काङ्क्षन्त: देवता:
यजन्ते हि (तान्) कर्मजा सिद्धि: क्षिप्रं भवति।
यजन्ते हि (तान्) कर्मजा सिद्धि: क्षिप्रं भवति।
ANAVYA-INLINE-GLOSS
इह [इस], मानुषे [मनुष्य], लोके [लोक में], कर्मणाम् [कर्मों के], सिद्धिम् [फल को], काङ्क्षन्त: [चाहने वाले ((लोग))], देवता: [देवताओं का],
यजन्ते [पूजन किया करते हैं;], हि (तान्) [क्योंकि (उनको)], कर्मजा [कर्मों से उत्पन्न होने वाली], सिद्धि: [सिद्धि], क्षिप्रम् (एव) [शीघ्र ((ही))], भवति [मिल जाती है।],
यजन्ते [पूजन किया करते हैं;], हि (तान्) [क्योंकि (उनको)], कर्मजा [कर्मों से उत्पन्न होने वाली], सिद्धि: [सिद्धि], क्षिप्रम् (एव) [शीघ्र ((ही))], भवति [मिल जाती है।],
ANUVAAD
इस मनुष्य लोक में कर्मों के फल को चाहने वाले ((लोग)) देवताओं का
पूजन किया करते हैं; क्योंकि (उनको) कर्मों से उत्पन्न होने वाली सिद्धि शीघ्र ((ही)) मिल जाती है।
पूजन किया करते हैं; क्योंकि (उनको) कर्मों से उत्पन्न होने वाली सिद्धि शीघ्र ((ही)) मिल जाती है।