SHLOKA
यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।2.57।।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।2.57।।
PADACHHED
य:, सर्वत्र_अनभिस्नेह:_तत्_तत्_प्राप्य, शुभाशुभम्,
न_अभिनन्दति, न, द्वेष्टि, तस्य, प्रज्ञा, प्रतिष्ठिता ॥ ५७ ॥
न_अभिनन्दति, न, द्वेष्टि, तस्य, प्रज्ञा, प्रतिष्ठिता ॥ ५७ ॥
ANAVYA
य: (पुरुषः) सर्वत्र अनभिस्नेह: तत् तत् शुभाशुभं (वस्तुं) प्राप्य
न अभिनन्दति, न (च) (एव) द्वेष्टि, तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।
न अभिनन्दति, न (च) (एव) द्वेष्टि, तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।
ANAVYA-INLINE-GLOSS
य: (पुरुषः) [जो (पुरुष)] , सर्वत्र [सर्वत्र] , अनभिस्नेह: [स्नेहरहित हुआ] , तत् तत् [उस-उस] , शुभाशुभम् [शुभ या अशुभ], {(वस्तुम्) [वस्तु को]} , प्राप्य [प्राप्त करके],
न [न] , अभिनन्दति [प्रसन्न होता है] , न (च एव) [(और) न (ही)] , द्वेष्टि [द्वेष करता है,] , तस्य [उसकी] , प्रज्ञा [बुद्धि] , प्रतिष्ठिता [स्थिर है।],
न [न] , अभिनन्दति [प्रसन्न होता है] , न (च एव) [(और) न (ही)] , द्वेष्टि [द्वेष करता है,] , तस्य [उसकी] , प्रज्ञा [बुद्धि] , प्रतिष्ठिता [स्थिर है।],
ANUVAAD
जो (पुरुष) सर्वत्र स्नेहरहित हुआ उस-उस शुभ या अशुभ (वस्तु) को प्राप्त करके न प्रसन्न होता है (और) न (ही) द्वेष करता है उसकी बुद्धि स्थिर है ।।५७।।