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Chapter 17 – श्रद्धात्रयविभागयोग Shloka-28

Chapter-17_1.28

SHLOKA

अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह।।17.28।।

PADACHHED

अश्रद्धया, हुतम्‌, दत्तम्, तप:_तप्तम्‌, कृतम्‌, च, यत्‌,
असत्_इति_उच्यते, पार्थ, न, च, तत्_प्रेत्य, नो, इह ॥ २८ ॥

ANAVYA

(हे) पार्थ! अश्रद्धया हुतं दत्तं (च) तप्तं तप: च यत्‌ (किञ्चित्)
कृतम्‌ (शुभकर्म) (तत् सर्वम्) असत् इति उच्यते (अतः) तत् नो इह च न प्रेत्य।

ANAVYA-INLINE-GLOSS

(हे) पार्थ! [हे अर्जुन!], अश्रद्धया [बिना श्रद्धा के किया हुआ], हुतम् [हवन,], दत्तम् (च) [दिया हुआ दान (एवं)], तप्तम् [तपा हुआ], तप: [तप], च [और], यत् (किञ्चित्) [जो (कुछ भी)],
कृतम् (शुभकर्म) [किया हुआ (शुभ कर्म) है], {(तत् सर्वम्) [वह समस्त]}, "असत् [असत्]", इति [इस प्रकार], उच्यते (अतः) [कहा जाता है; (इसलिये)], तत् [वह], नो [न ((तो))], इह [इस लोक में], च [और], न [न ((तो))], प्रेत्य [मरने के बाद ही ((लाभदायक है))।],

ANUVAAD

हे अर्जुन! बिना श्रद्धा के किया हुआ हवन, दिया हुआ दान (एवं) तपा हुआ तप और जो (कुछ भी) किया हुआ (शुभ कर्म) है (वह समस्त) असत् इस प्रकार
कहा जाता है; (इसलिये) वह न ((तो)) इस लोक में और न ((तो)) मरने के बाद ही ((लाभदायक है))।

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