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Chapter 13 – क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोग/क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोग Shloka-31

Chapter-13_1.31

SHLOKA

अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः।
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते।।13.31।।

PADACHHED

अनादित्वात्_निर्गुणत्वात्_परमात्मा_अयम्_अव्यय:,
शरीर-स्थ:_अपि, कौन्तेय, न, करोति, न, लिप्यते ॥ ३१ ॥

ANAVYA

(हे) कौन्तेय! अनादित्वात्‌ (च) निर्गुणत्वात्‌ अयम्‌ अव्यय: परमात्मा
शरीरस्थ: अपि न (तु) करोति न (च) लिप्यते (एव)।

ANAVYA-INLINE-GLOSS

(हे) कौन्तेय! [हे अर्जुन!], अनादित्वात् (च) [अनादि होने से (और)], निर्गुणत्वात् [निर्गुण होने से], अयम् [यह], अव्यय: [अविनाशी], परमात्मा [परमात्मा],
शरीरस्थ: [शरीर में स्थित होने पर], अपि [भी ((वास्तव में))], न (तु) [न (तो)], करोति [((कुछ)) करता है], न (च) [(और) न], लिप्यते (एव) [लिप्त (ही) होता है।],

ANUVAAD

हे अर्जुन! अनादि होने से (और) निर्गुण होने से यह अविनाशी परमात्मा
शरीर में स्थित होने पर भी ((वास्तव में)) न (तो) ((कुछ)) करता है (और) न लिप्त (ही) होता है।

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