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Chapter 11 – विश्वरूपदर्शनम्/विश्वरूपदर्शनयोग Shloka-45

Chapter-11_1.45

SHLOKA

अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा
भयेन च प्रव्यथितं मनो मे।
तदेव मे दर्शय देवरूपं
प्रसीद देवेश जगन्निवास।।11.45।।

PADACHHED

अदृष्ट-पूर्वम्, हृषित:_अस्मि, दृष्ट्वा, भयेन, च, प्रव्यथितम्‌, मन:_मे,
तत्_एव, मे, दर्शय, देव-रूपम्‌, प्रसीद, देवेश, जगन्निवास ॥ ४५ ॥

ANAVYA

(अहम्) अदृष्टपूर्वं दृष्ट्वा हृषित: अस्मि च मे मन: भयेन
प्रव्यथितम् (अतः) (त्वम्) तत् देवरूपम्‌ एव मे दर्शय; (हे) देवेश! (हे) जगन्निवास! प्रसीद ।

ANAVYA-INLINE-GLOSS

(अहम्) अदृष्टपूर्वम् [(मैं) पहले न देखे हुए (आपके इस आश्चर्यमय रूप) को], दृष्ट्वा [देखकर], हृषित: [हर्षित], अस्मि [हो रहा हूँ], च [और], मे [मेरा], मन: [मन], भयेन [भय से],
प्रव्यथितम् [अत्यन्त व्याकुल भी हो रहा है;], {(अतः) [इसलिये], {(त्वम्) [आप]}, तत् [उस ((अपने))], देवरूपम् [((चतुर्भुज)) विष्णुरूप को], एव [ही], मे [मुझे], दर्शय [दिखलाइये।], (हे) देवेश! [हे देवेश!], (हे) जगन्निवास! [हे जगन्निवास!], प्रसीद [प्रसन्न होइये।],

ANUVAAD

(मैं) पहले न देखे हुए (आपके इस आश्चर्यमय रूप) को देखकर हर्षित हो रहा हूँ और मेरा मन भय से
अत्यन्त व्याकुल भी हो रहा है; (इसलिये) (आप) उस ((अपने)) ((चतुर्भुज)) विष्णुरूप को ही मुझे दिखलाइये। हे देवेश! हे जगन्निवास! प्रसन्न होइये।

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