Chapter 11 – विश्वरूपदर्शनम्/विश्वरूपदर्शनयोग Shloka-18

Chapter-11_1.18

SHLOKA

त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं
त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।
त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता
सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे।।11.18।।

PADACHHED

त्वम्‌_अक्षरम्‌, परमम्‌, वेदितव्यम्‌, त्वम्_अस्य, विश्वस्य,
परम्, निधानम्‌, त्वम्‌_अव्यय:, शाश्वत-धर्म-गोप्ता,
सनातन:_त्वम्‌, पुरुष:, मत:, मे ॥ १८ ॥

ANAVYA

त्वं (एव) वेदितव्यं परमम् अक्षरम् (असि), त्वम् (एव) अस्य विश्वस्य परं निधानम् (असि), त्वम् (एव)
शाश्वतधर्मगोप्ता (असि), (च) त्वम् (एव) अव्यय: सनातन: पुरुष: (असि), (इति) मे मत: ।

ANAVYA-INLINE-GLOSS

त्वम् (एव) [आप (ही)], वेदितव्यम् [जानने योग्य], परमम् [परम], अक्षरम् (असि) [अक्षर अर्थात् परब्रह्म परमात्मा हैं,], त्वम् (एव) [आप (ही)], अस्य [इस], विश्वस्य [जगत् के], परम् [परम], निधानम् (असि) [आश्रय हैं,], त्वम् (एव) [आप (ही)],
शाश्वतधर्मगोप्ता (असि) [अनादि धर्म के रक्षक हैं,], {(च) [और]}, त्वम् (एव) [आप (ही)], अव्यय: [अविनाशी], सनातन: [सनातन], पुरुष: (असि) [पुरुष हैं], {(इति) [ऐसा]}, मे [मेरा], मत: [मत है।],

ANUVAAD

आप (ही) जानने योग्य परम अक्षर अर्थात् परब्रह्म परमात्मा हैं, आप (ही) इस जगत् के परम आश्रय हैं, आप (ही)
अनादि धर्म के रक्षक हैं, (और) आप (ही) अविनाशी सनातन पुरुष हैं (ऐसा) मेरा मत है।

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