Chapter 6 – ध्यानयोग/आत्मसंयमयोग Shloka-38

Chapter-6_6.38

SHLOKA

कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति।
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि।।6.38।।

PADACHHED

कच्चित्_न_उभय-विभ्रष्ट:_छिन्नाभ्रम्_इव, नश्यति,
अप्रतिष्ठ:, महाबाहो, विमूढ:, ब्रह्मण:, पथि ॥ ३८ ॥

ANAVYA

(हे) महाबाहो! कच्चित्‌ ब्रह्मण: पथि विमूढः (च) अप्रतिष्ठ: (पुरुषः)
छिन्नाभ्रम् इव उभयविभ्रष्ट: न नश्यति।

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(हे) महाबाहो! [हे महाबाहो!], कच्चित् [क्या (वह)], ब्रह्मण: [भगवत्प्राप्ति के], पथि [मार्ग में], विमूढः (च) [मोहित (और)], अप्रतिष्ठ: (पुरुषः) [आश्रयरहित (पुरुष)],
छिन्नाभ्रम् [छिन्न-भिन्न बादल की], इव [भाँति], उभयविभ्रष्ट: [दोनों ओर से भ्रष्ट होकर], न नश्यति [नष्ट तो नहीं हो जाता?],

ANUVAAD

हे महाबाहो! क्या (वह) भगवत्प्राप्ति के मार्ग में मोहित (और) आश्रयरहित (पुरुष)
छिन्न-भिन्न बादल की भाँति दोनों ओर से भ्रष्ट होकर नष्ट तो नहीं हो जाता?

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