Chapter 18 – मोक्षसन्न्यासयोग Shloka-48
SHLOKA
सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः।।18.48।।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः।।18.48।।
PADACHHED
सहजम्, कर्म, कौन्तेय, सदोषम्_अपि, न, त्यजेत्,
सर्वारम्भा:, हि, दोषेण, धूमेन_अग्नि:_इव_आवृता: ॥ ४८ ॥
सर्वारम्भा:, हि, दोषेण, धूमेन_अग्नि:_इव_आवृता: ॥ ४८ ॥
ANAVYA
(अतः) (हे) कौन्तेय! सदोषम् अपि सहजं कर्म न त्यजेत् हि
धूमेन अग्नि: इव सर्वारम्भा: दोषेण आवृता:।
धूमेन अग्नि: इव सर्वारम्भा: दोषेण आवृता:।
ANAVYA-INLINE-GLOSS
{(अतः) [अतएव]} (हे) कौन्तेय! [हे कुन्तीपुत्र!], सदोषम् [दोषयुक्त होने पर], अपि [भी], सहजम् [सहज], कर्म [कर्म को], न [नहीं], त्यजेत् [त्यागना चाहिये;], हि [क्योंकि],
धूमेन [धूएँ से], अग्नि: [अग्नि की], इव [भाँति], सर्वारम्भा: [सभी कर्म], दोषेण [((किसी-न-किसी)) दोष से], आवृता: [युक्त हैं।]',
धूमेन [धूएँ से], अग्नि: [अग्नि की], इव [भाँति], सर्वारम्भा: [सभी कर्म], दोषेण [((किसी-न-किसी)) दोष से], आवृता: [युक्त हैं।]',
ANUVAAD
(अतएव) हे कुन्तीपुत्र! दोषयुक्त होने पर भी सहज कर्म को नहीं त्यागना चाहिये; क्योंकि
धूएँ से अग्नि की भाँति सभी कर्म ((किसी-न-किसी)) दोष से युक्त हैं।
धूएँ से अग्नि की भाँति सभी कर्म ((किसी-न-किसी)) दोष से युक्त हैं।