Gita Chapter-1 Shloka-30

SHLOKA

गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः।।1.30।।

PADACHHED

गाण्डीवम्‌, स्त्रंसते, हस्तात्_त्वक्_च_एव, परिदह्यते,
न, च, शक्नोमि_अवस्थातुम्‌, भ्रमति_इव, च, मे, मन: ॥ ३० ॥

ANAVYA

हस्तात्‌ गाण्डीवं स्त्रंसते च त्वक् एव परिदह्यते च
मे मन: भ्रमति इव (अत:) (अहम्) अवस्थातुं च न शक्नोमि।

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हस्तात् [हाथ से], गाण्डीवम् [गाण्डीव ((धनुष))], स्त्रंसते [गिर रहा है], च [और], त्वक् [त्वचा], एव [भी], परिदह्यते [बहुत जल रही है], च [तथा],
मे [मेरा], मन: [मन], भ्रमति इव [भ्रमित सा हो रहा है,], {(अत: अहम्) [इसलिये मैं]}, अवस्थातुम् [खड़ा रहने को], च [भी], न शक्नोमि [समर्थ नहीं हूँ।],

ANUVAAD

हाथ से गाण्डीव ((धनुष)) गिर रहा है और त्वचा भी बहुत जल रही है तथा
मेरा मन भ्रमित सा हो रहा है, (इसलिये) (मैं) खड़ा रहने को भी समर्थ नहीं हूँ।

 

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